Thursday, February 26, 2015
When Craziness Converse
I met Neeraj at writers meetup. So yes, he is a writer but actually he is way more than just a writer. He is also a playwright an artist and a poet. Now one day, randomly (because he like me is mad), Neeraj sent me the following in a mail :
कभी गौर किया है तुमने ? रात के कुछ ढलने के बाद कई बार एक तलब चढ़ती है, चाय या कॉफ़ी पीने की । ये वो तलब होती है जब चाय या कॉफ़ी में से कुछ भी मिल जाये तो काम हो जाता है । तुम्हारे पास ऑप्शन ढूंढने के कोई हालात बचते ही नहीं । जो भी सामने आता है वो तुम स्वीकार करते हो, या कहो कि उसमें घुल लेते हो । अक्सर रात के बारह बजने के आस पास या उसके बाद मेरी भी यह इच्छा तीव्र हो जाती है । कई बार दोस्तों के साथ या अकेले एक प्याली चाय या कॉफ़ी ढूंढने निकल पड़ता हूँ । बैंगलोर के कई चौराहों, नुक्कड़ और गलियों में कुछ दूकानदार स्ट्रीट लैंप की पीली रौशनी के नीचे अपनी साइकिल पर चाय के थरमस के साथ सिगरेट और चकली लिए अक्सर खड़े होते हैं । और उनके आस पास होती है, दस से पंद्रह लोगों की भीड़, चाय या सिगरेट पीते हुए । सब अपनी बाइक और गाड़ियों को रोक कर चाय का लुत्फ़ ले रहे होते हैं । मैं उन्ही में से किसी एक नुक्कड़ पर चाय पीने निकल जाता हूँ … जहाँ भी मिल जाए । बैंगलोर की हल्की ठंढी रातों में किसी बंद दूकान की सीढ़ियों या किसी फूटपाथ पर बैठ कर समय को गुज़रते हुए देखना मुझे पसंद है ।
खैर बात हो रही थी चाय की... दरअसल रात की चाय को बस 'चाय' कहना अपराध होगा...लेखन की भाषा में कहूँ तो बड़ा ही फ्लैट होगा । रात की चाय एक टोकन है कुछ और वक़्त खरीदने के लिए… नींद की आगोश में जाने से पहले अगर रात थोड़ी और जी जा सके इसकी सम्भावना लिए हर चाय की प्याली आती है । भले ही देर रात गली नुक्कड़ पर बिकने वाली चाय हो या घर में देर रात बनाई हुई मेरी कॉफ़ी । ये सभी एक टोकन हैं, जो मुझे थोड़ी और देर जगाने में मदद करते हैं । मुझे रात पसंद है, रात में बाहर निकलो तो ऐसा लगता है आसमान मानों एक बड़ा सा तंबू तना हो और टिमटिमाते तारे ऐसे जैसे उस तंबू में लगी छोटी छोटी लाइट्स, और रात के इस वक़्त इस तम्बू के नीचे चल रही बहुत सी कहानियों को थोड़ा ठहराव मिलता दीखता है… एक कहानी शुरू होकर अपने एक मोड तक आती दिखती है, जैसे दिन के पाँव दुःख गए हो और वो रात के पीछे छुप कर थोड़ी देर आराम करना चाहता हो । मुझे यह सब देखना बहुत पसंद है, अलग अलग किरदारों को देखना, उनको गढ़ना, उनके बारे मे सोचना ये सब उसी तंबू के तले होते हैं | मैं रात में सोना बस मजबूरी से करता हूँ। मैं कभी अपनी छत पर बैठे बैठे पूरी रात, रात के साथ सफर करना चाहता हूँ, तब तक, जब तक रात सरकते-सरकते सुबह ना बन जाये… पर ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता । पर मेरी कॉफ़ी का मग या प्याली की चाय मुझे कुछ और देर जागने में मदद करते हैं , इसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ । मेरे लिए दिन और रात के अलग अलग वक़्त पर गटके गए प्यालों का अलग अलग मतलब है ।
खैर अभी अभी बाहर से आया हूँ , आज कोई चायवाला नहीं मिला । मैं अनायास ही लगभग तीन किलोमीटर का सफर कर के खाली हाथ वापस आ गया । रसोई में जाकर देखा तो थोड़ा दूध बचा हुआ था … जैसे मेरे लिए ही छोड़ा गया हो । रात के एक बज रहे हैं … और मैं अपनी कॉफ़ी बना रहा हूँ ।
- Neeraj Pandey
When I got this mail, I was going through a "lack of ideas" spell. Neeraj's mail gave me an idea to adapt his piece in my way. This is what I replied.
Have you heard about those mad writers? The ones who are up at insane hours creating people, giving them quirks , making up a world? Have you heard how writers run on coffee? Well we don't run on coffee but then there are these moments ... When all you want is a wonderful cup of tea or coffee in that tiny little tumbler. I like the feel of that thin glass against my fingers and most of all, I love the coziness of the first sip. To me, it feels like a warm hug from a best friend. A cup of tea is a wonderful companion -- to a loner, who likes her thoughts flavored with a delicious sip of warmth or to an awkward couple who are too nervous to talk, but might break ice with a simple statement of ,"would you like a cup of tea?"
Here in Bangalore, people sell tea or coffee stand in a small corner. Usually, they also sell cigarettes and biscuits -- the best friends to a cup of a tea. Sometimes, I like to go out in the late hours. I like to buy my cup of tea and sip it in the silence of the night. I like nights. I like the stillness, the calm. I like it how the night falls, without us really noticing it. But she just takes over,allowing us to sit back and to sigh or smile about the day. She lets us be, unlike the day time who demands that we go out there dressed to the tee, win our victories and fight our fights. I like to see an empty street of the night. More often than not, I see a story lurking around the corner of a street. I like to hear snatches of people's conversation. I like to get a glimpse of their lives. When I walk down an empty street and see a house with its lights on, I wonder -- is there someone like me in there? What keeps someone awake so late? I have my reasons -- I am sure they do too.
I have just come back from such a walk. Today, there was no one standing in a corner, selling tea on a barely noticeable cycle. So I make my own cup. It might not have the exact same taste, the exact same sweetness but I am sure, when the tea goes in , in the form of a few tiny relaxed sip, the warmth will be the same.
Thanks to this guy, I could finally write -- after ages! I could move my fingers , flex my creative muscles. Thank you Neeraj! I hope to do this more often!
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